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Writer's pictureBenjamin Scholz

#BiharDebates: बिहार के स्कूलों का भविष्य -शिक्षा व्यवस्था के संकट से उभरने का भावी विकल्प?

Updated: Nov 21, 2018


21 वीं सदी के बिहार को स्कूल शिक्षा प्रणाली किस प्रकार की शिक्षा प्रदान करने में सक्षम होना चाहिए? वर्तमान में इसकी स्थिति क्या है? और भावी रूप से सक्षम व सुदृढ़ प्रणाली विकसित करने के लिए समकालीन व्यवस्था की चुनौतियों से हम कैसे उभरे?

आपको आश्चर्य हो सकता है कि क्या यह किसी थिंक-टैंक के मंथन का विषय है या नहीं।आखिरकार, क्या थिंक-टैंक को तकनीकी समस्याओं को लेकर तकनीकी सलाह प्रदान करने तक सीमित नहीं रहना चाहिए? हमें लगता है कि तकनीकी सलाह हमारे काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन हमें इसके आगे जाना चाहिए।क्योंकि हम एक जनपक्षधर थिंक-टैंक हैं। इसका मतलब है कि हम अपने लोगों, बिहार के सभी नागरिकों की परवाह करते हैं। इसके लिए आवश्यक है हमारा दिशानिर्देश स्पष्ट होना चाहिए की हम कहाँ जाना चाहते हैं। यह ब्लॉग पोस्ट इस प्रश्न के आसपास चल रही चर्चा के लिए शुरुआती बिंदु के रूप में कार्य करेगा: हम कहां जाना चाहते हैं?


बिहार में स्कूली शिक्षा संकट में है। वर्तमान परिदृश्य में ऐसा लगता है कि तमाम राजनीतिक गलियारों में इस मुद्दे पर आम सहमति कि यथास्थिति अवांछनीय है। इसका मतलब है कि सुधार की दिशा में सबका प्रोत्साहन है। अगर हम आगे बढ़ना चाहते हैं, तो हमें दो चीजों को जानने की जरूरत है: पहला हम कहां जाना चाहते हैं (1), और दूसरा की हम वहां कैसे जायें (2)। दरअसल (1), (2) से पहले स्पष्ट किया जाना चाहिए।


आइए पहले प्रश्न को गहनता से देखे-हम कहां जाना चाहते है? दूसरे शब्दों में, हमारे विषय के लिए, सवाल यह है कि हम बिहार की शिक्षा प्रणाली को किस स्वरूप में विकसित करना चाहते हैं? आइए सबसे पहले हमारे भविष्य की स्कूल प्रणाली के लिए सैद्धांतिक बिंदुओं पर गौर करे।


आमतौर पर दो श्रेणियां होती हैं जिन पर हम विशेष नजर रखना चाहते हैं: गुणवत्ता और समता

यह वास्तव में हमारे संस्थान के मिशन में भी परिलक्षित होता हैं : सभी बच्चों (समता) के लिए अच्छे स्कूल (गुणवत्ता)। फिर भी, यह हमें स्पष्ट विचार नहीं देता कि वास्तव में एक अच्छा स्कूल क्या है और कैसे सभी बच्चों के लिए स्कूल अच्छा हो सकता है।

गुणवत्ता को अक्सर समकालीन चर्चाओं में सीखने के स्तर तक सीमित कर दिया जाता है। ज्ञान प्रदान करना स्कूलों का एक मुख्य कार्य है। लेकिन यह एकमात्र उदेश्य नहीं है। हम चाहेंगे की हमारे संविधान के मूल्य और जिम्मेदार नागरिकता की भावना स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा हो। इससे भी आगे, हम अंततः एक समाज चाहते हैं जो हर किसी को गरिमा और सम्मान के साथ व्यवहार करता हो, अपनी साझी सांस्कृतिक विरासत से अवगत हो, और ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण हो जो सामाजिक उत्तरदायित्व और जनकल्याण के लिए सार्थक तरीके से योगदान करता है।स्कूलों को शायद एक ऐसा स्थान भी होना चाहिए जहां चर्चा को प्रोत्साहित किया जाता है, सक्रिय नागरिकता का अभ्यास किया जाता है, और लोकतंत्र की भावना विकसित होती है। जिसमें पहले से ही बहुत कुछ है।


हमारे संदर्भ में समता का मतलब क्या है? समता का मतलब है कि हम एक ऐसी स्कूल प्रणाली चाहते हैं जिसमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस पृष्ठभूमि से आए हैं। आपका लिंग, आपकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि (साफ तौर पर कहें तो चाहे आपके माता-पिता निजी ट्यूशन या अन्य बाजारू संसाधन खर्चे उठाने की लिए सक्षम हो या नहीं), आपकी जाति, आपकी विकलांगता, या आप कहाँ रहते हैं (जैसे ग्रामीण बनाम शहरी क्षेत्र ) निर्धारित न करें या यहां तक कि इस पर प्रभाव न डालें की प्रत्येक बच्चें अपने उच्चतम संभाव्यता को हासिल करके आगे बढ़ सके। साथ ही समतापूर्ण स्कूल एक सुरक्षित स्थान होना चाहिए। वे लड़कियों और लड़कों के लिए समान रूप से सुरक्षित होना चाहिए। यह एक सरल और सामान्य विवरण की तरह लगता है। लेकिन प्राय, गूढ़ और वास्तविक प्रचलन हमें विस्तार में जाने पर पता चलता है।


सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि का इस परिघटना पर गहरा प्रभाव पड़ता है कि क्या बच्चें बिना पढ़ाई पूरी किये बीच में ही छोड़ देंगे? यहां तक कि यदि वे नहीं छोड़ते हैं, तो वे स्कूल में वे कितना सीख पाते हैं? ऐसा क्यूँ? कारण कई सारे हो सकते है,लेकिन मध्यम वर्ग के माता-पिता के विपरीत, गरीब माता-पिता खुद पढ़ने और लिखने में सक्षम नहीं होते। इसलिए बच्चों को पढ़ाई में सहयोग करने का सामर्थ्य उनमें सीमित होता है। स्कूल में जो पाठ बच्चे नहीं सीखते वे घर पर भी नहीं सिख पाते हैं। एक और पहलू पारिवारिक तनाव हो सकता है। गरीब परिवार अक्सर आर्थिक रूप से संघर्ष करते हैं और अभावग्रस्तता से जूझते हुये दो वक़्त की रोटी के इंतजाम में लगे रहते है। बिहार राज्य के संदर्भ में दिहाड़ी मजदूरी के लिए पलायन एक नियमित परिघटना है।लंबे समय तक परदेश में अकेले रहना बच्चों सहित सभी परिवार के सदस्यों पर भावनात्मक तनाव डालता है।इसलिए स्कूल के बाहर के वातावरण का स्कूल के अंदर बच्चों के पठन-पाठन के स्तर पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

हम निश्चित रूप से स्कूलों में सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कई अन्य बिंदुओं के बारे में सोच सकते हैं। प्रत्येक बच्चा अपने आप में अलग होता है, सबको घरेलू स्तर पर अलग-अलग समर्थन मिलता है, इससे निपटने के लिए भावनात्मक तनाव की अलग-अलग मात्रा होती है,साथ ही प्रत्येक बच्चों की भिन्न-भिन्न क्षमता और रुचियाँ होती है। एक शिक्षक को इस तरह के विविध जरूरतों से निपटना होगा।यह एक बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है।

एक आदर्श स्कूल प्रणाली शायद यह सुनिश्चित करेगी कि सभी बच्चों की सभी जरूरतों को पूरा किया जाए, उन्हें जिस तरीके की भी मदद की जरूरत चाहिए,उसमें सहयोग मिलें, वैसे ही सीखने के स्तर के उल्लिखित उद्देश्यों को पूरा करते हुये, नागरिक शिक्षा से भी लैस हो।मगर बिहार के स्कूलों में की रोज़ाना के पठन-पाठन की वास्तविक हालात इनसे कोशो दूर है। ये परिस्थिति हमें दूसरे प्रश्न (2) पर ले जाता है की हम इस यथास्थिति में कैसे बदलाव लाकर प्रश्न (1) की वस्तुस्थिति को प्राप्त करें। इस पर आगे वैश्विक स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर पर और बिहार में शिक्षा के सुधारों के लिए विविध विचारों पर चर्चा की गई है।

हम फ्रैंक एडमसन, बोजर्न एस्ट्रैंड और लिंडा डार्लिंग-हैमंड द्वारा अपनी पुस्तक 'ग्लोबल एजुकेशन रिफॉर्म' में उल्लिखित ढांचे के ऊपर इस सवाल का जवाब ढूढ़ने का प्रयास कर सकते है।


इस बहस के विभिन्न विपरीत औचित्य हैं।जिनमें से एक नवउदारवादी तर्क है जो दक्षता पर केंद्रित है और वैकल्पिक चयन द्वारा दक्षता हासिल करने की कोशिश करता है।विकल्प इस औचित्य में एक महत्वपूर्ण आधारशिला है।जिसके अनुसार माता-पिता को अपने बच्चों के स्कूल का चयन करने की अनुमति दी जानी चाहिए। स्कूलों को छात्रों के लिए प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए। इससे गुणवत्ता बढ़ेगी।

दूसरी तरफ, सार्वजनिक निवेश का विचार सार्वभौमिक पहुंच, शिक्षा एक सार्वजनिक वस्तु न की निजी उपभोग की व्यावसायिक वस्तु मानती है। इस औचित्य में सार्वजनिक बहस और नागरिकता का प्रमुख स्थान है शिक्षा प्रणाली में चुने गए तंत्र के लिए इसका महत्वपूर्ण निहितार्थ है:


नवउदारवादी तंत्र प्रतिस्पर्धा पर ध्यान केंद्रित करता है। वाउचर(कूपन) बच्चों को बाजार में विभिन्न स्कूलों में से कोई भी चुनने की अनुमति देने के लिए होते हैं। पठन-पाठन को एक परीक्षण आधारित लेखा-जोखा के अनुरूप बनाया गया है। जैसे कि बाज़ार में वस्तुओं और सेवाओं पर अंकित मूल्य उपभोक्ताओं को संकेत देते हैं, वैसे ही विरल,मानकीकृत परीक्षण परिणाम स्कूलों का पदानुक्रम तय करते है जो अभिवावकों के लिए संकेत देने का कार्य करते है।


प्रतियोगिता यह सुनिश्चित करेगी कि पदानुक्रम में बेहतर स्थान पाने के लिए स्कूलों में अच्छे ग्रेड बनाए रखने में स्वयं में रुचि रखेंगे।अगर वे इस कार्य में असफल हो जाते हैं, तो वे व्यवसाय से अवमूल्यन और बाजार से अप्रासंगिक हो जाते हैं। इस प्रणाली में जवाबदेही महीन होती है। मानकीकृत परीक्षण के आधार पर शिक्षकों का मूल्यांकन किया जाता है।इससे यह सुनिश्चित होता है कि शिक्षक अपेक्षानुसार अध्यापन कर रहे हैं।यह प्रणाली अपने शिक्षकों पर भरोसा नहीं करता है लेकिन मानकीकृत परीक्षण के द्वारा कर्तव्य अनुपालन सुनिश्चित करता है।



दूसरी तरफ, सार्वजनिक निवेश शिक्षकों में निवेश करता है। शिक्षक को अध्यापन के लिए तत्पर रहने आशा की जाती है, साथ ही उनको अपने पेशेवर जीवन में भी सहयोग दिया जाता है। स्कूल अच्छी तरह से वित्त पोषित होते हैं।बुनियादी संरचना राज्य द्वारा प्रदान की जाती है और शिक्षा के सभी सर्वांगीण उद्देश्यों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। शिक्षा को मात्र परीक्षा के प्राप्तांक तक सीमित नहीं किया जाता है। इसका मकसद लोकतांत्रिक और सार्वजनिक मूल्यों के प्रति आत्मनिष्ठा का समावेश शामिल करना है। इस प्रणाली के स्कूलों को असफल होने नहीं दिया जाता है।

उनकी बारीकी से निगरानी और सहयोग किया जाता है ताकि विफलता को रोका जा सके। इस प्रणाली में जवाबदेही सघन होती है। यह जिम्मेदारी के रूप में बेहतर वर्णित किया जा सकता है। अच्छी तरह से प्रशिक्षित शिक्षकों के पेशेवर लोकाचार इस प्रणाली को विवेकाधिकार प्रदान करने की अनुमति देता है। यह व्यवस्था अपने शिक्षकों पर भरोसा करती है। सहायक वातावरण शिक्षकों को कठिनाइयों का सामना करने के लिए प्रोत्साहित करता है।


ये दोनों प्रतिमान एक स्कूल प्रणाली की व्यवस्था के संभावित तरीकों की एक निरंतरता के दो चरम बिंदु हैं। सवाल यह है कि बिहार की स्कूल प्रणाली कहां स्थित होनी चाहिए?

इतिहास में पन्नों में देखे तो भारतीय और खासकर नालंदा और विक्रमशीला जैसे विश्वविख्यात प्राचीन विश्वविद्यालय की धरती बिहार की परंपरा में शिक्षा कभी भी प्रतिस्पर्धा पर आधारित बाजार में व्यापार के लिए उपलब्ध उपभोग की वस्तु रूप में नहीं देख पाएंगे। ये बात भी ऐतिहासिक रूप से सही है की स्कूल प्रणाली में भेदभाव और बहिष्करण के प्रथा के कारण अधिकांश बच्चों को शिक्षा तक पहुंच से वंचित कर दिया गया था। शिक्षा को व्यापार योग्य उपभोग की वस्तु के रूप में देखने का मत स्वदेशी नहीं बल्कि एक विदेशी अवधारणा है।

स्थानीय संदर्भ को देखते हुए, नवउदार प्रणाली के कार्य करने की मुख्य आवश्यकता और शर्तें बिहार के परिपेक्ष्य में संभावित नहीं दिखती है-प्रतिस्पर्धा (विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में) और प्रभावी मानकीकृत परीक्षण (नकल के कारण)। यद्यपि संकीर्ण अर्थों में मानकीकृत परीक्षणों के प्राप्तांक माता-पिता के लिए स्कूलों की गुणवत्ता के बारे में स्पष्ट संकेत देना चाहिए। फिर भी, यदि न तो कोई प्रतिस्पर्धा और न ही कोई विश्ववसनीय परीक्षण हो, तो निष्कामता और संसाधन बर्बादी की संभावना व्यापाकरूप से बढ़ जाती है।


नियामक आयामों को ध्यान में देखते हुए, हर किसी को यह तय करने की आवश्यकता होती है कि क्या शिक्षा को अधिगम (Learning) के संकीर्ण विचार का पालन करना चाहिए जिसे महज मानक परीक्षण के प्राप्तांको से मापा जा सकता है (यहाँ कोई तर्क दे सकता है कि यह यथास्थिति से कम से कम बेहतर है) या क्या कोई सोचता है कि शिक्षा सार्वजनिक होनी चाहिए जो न केवल विद्यार्थियों को श्रम बाजार के मजदूर के रूप में तैयार करते हैं, बल्कि एक जिम्मेदार नागरिक के कर्तव्यों के लिए। आप असहमत हैं? आईये मिलकर बहस करते है!



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